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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


मनोवृत्ति मुंशी प्रेम चंद
2
बसंत और हाशिम निकर और बनियान पहनें नंगे पाँव दौड़कर रहे हैं। बड़े दिन की छुट्टियों में ओलिम्पियन रेस होनेवाले हैं, दोनों उसी की तैयारी कर रहे है। दोनों इस स्थल पर पहुँचकर रूक जाते हैं और दबी आँखों से युवती को देखकर आपस में ख्याल दौड़ाने लगते हैं।
बसंत ने कहा- इसे और कहीं सोने की जगह न मिली।
हाशिम ने जवाब दिया- कोई वेश्या हैं।
'लेकिन वेश्याएँ भी तो इस तरह बेशर्मी नहीं कहती।'
'वेश्या अगर बेशर्म न हो, तो वह वेश्या नही।'
'बहुत-सी ऐसी बातें हैं, जिनमें कुलवधु और वेश्या, दोनों एक व्यवहार करती हैं। कोई वेश्या मामूली तौर पर सड़क पर सोना नहीं चाहती।'
'रूप-छवि दिखाने का नया आर्ट हैं।'
'आर्ट का सबसे सुन्दर रूप छिपाव हैं, दिखाव नही। वेश्या इस रहस्य को खूब समझती हैं।'
'उसका छिपाव केवल आकर्षण बढ़ाने के लिए हैं।'
'हो सकता हैं, मगर केवल यहाँ सो जाना, यह प्रमाणित नहीं करता कि यह वेश्या हैं। इसकी माँग में सिन्दूर हैं।'
'वेश्याएँ अवसर पड़ने पर सौभाग्यवती बन जाती हैं। रात भर प्याले के दौर चले होंगे। काम-क्रीड़ाएँ हुई होंगी। अवसाद के कारण, ठंडक पाकर सो गयी होगी।'
'मुझे तो कुल-वधु-सी लगती हैं।'
'कुल-वधु पार्क में सोने आयेगी?'
'हो सकता हैं, घर से रूठकर आयी हो।'
'चलकर पूछ ही क्यों न लें।'
'निरे अहमक हो! बगैर परिचय के आप किसी को जगा कैसे सकते है?'
'अजी, चलकर परिचय कर लेंगे। उलटे और एहसास जताएँगे।'
'और जो कहीं झिझक दे?'
'झिझकने की कोई बात भी हो। उससे सौजन्य और सहृदयता में डूबी हुई बातें करेंगें। कोई युवती ऐसी, गतयौवनाएँ तक तो रस-भरी बातें सुनकर फूल उठती हैं। यह तो नवयौवना है। मैने रूप और यौवन का ऐसा सुन्दर संयोग नहीं देखा था।'
'मेरे हृदय पर तो यह रूप जीवन-पर्यत के लिए अंकित हो गया। शायद कभी न भूल सकूँ।'
'मैं तो फिर भी यही कहता हूँ कि कोई वेश्या हैं।'
'रूप की देवी वेश्या भी हो, उपास्य हैं।'
'यहीं खड़े-खड़े कवियों की-सी बातें करोगे, जरा वहाँ तक चलते क्यों नहीं? केवल खड़े रहना, पाश तो मैं डालूँगा।'
'कोई कुल-वधू हैं।'
'कुल-वधू पार्क में आकर सोये, तो इसके सिवा कोई अर्थ नहीं कि वह आकर्षित करना चाहती हैं और यह वेश्या मनोवृत्ति हैं।'
'आजकल की युवतियाँ भी तो फारवर्ड होने लगी हैं।'
'फारवर्ड युवतियाँ युवकों से आँखें नहीं चुराती।'
'हाँ, लेकिन हैं कुल-वधु। कुल-वधू से किसी तरह की बातचीत करना मैं बेहूदगी समझता हूँ।'
'तो चलो, फिर दौड़ लगाएँ।'
'लेकिन दिल में वह मूर्ति दौड़ रही है।'
'तो आओ बैठें। जब वह उठकर जाने लगे, तो उसके पीछे चलें। मै कहता हूँ वेश्या है।'
'और मैं कहता हूँ कुल-वधू हैं।'
'तो दस-दस की बाजी रही।'

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